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बुजुर्ग मकां / प्रतिमा त्रिपाठी

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1.
नुक्कड़ के आखिरी कोने पे
ऊँघता सा इक मकान !
दरवाजे ने जैसे बरसों से
कोई दस्तक न सुनी हो l
दरीचे पे अपनी
आखिरी साँसे गिनता
कुछ झुका बांस की
महीन सलाइयों का जर्द-गर्द पर्दा l
सर्द दीवारों के उपर तनी
एक झुलसी हुई छत l
उपर के नन्हे कोटरों में
कबूतरों की आवाजाही l
बाहरी आंगन में अपनी घनी
छाँव से राहत देता बूढ़ा नीम l
भीतर किसी के होने का
एहसास तभी जगता जब
रात के पसर जाने पे
इक ढिबरी झिलमिलाती l
जाने क्यूँ ऐसा लगता है के
रोज खांसता हुआ ये मकां शायद
अपने पेंशन के दिन काट रहा है !

2.
इक ख्याल रह-रह के
कौंध जाता है अक्सर के
बीमार औ बुजुर्ग ये मकां
क्या कभी उपर की सीढ़ियों से
यादों के तहखानों में उतरता होगा ?
क्या कोई ब्लैक एंड वाइट पिक्चर
इसके जहन में भी रोल होती होगी ?

अगवानी के लिए दरवाजे पे झरता
हरश्रृंगार का महकता गलीचा l
बात-बात पे हवा की छेड़खानी से
दस्तक देती झिझकती हुई कुण्डी l
लेटेस्ट डिज़ाइन के सींखचे खिडकियों पे
उसपे झूमता-इठलाता नया पर्दा l
ताज़ी सफेदी की गंध में डूबी दीवारें,
छत पे सजी गमकते फूलों की कतारें l
अपनी तरुनाई पे इतराता नीम,
उसकी लचकती शाखों पे झूलते झूले l
घर के भीतर से आते कुछ हंसी के छींटे
और कोई नाम पुकारती आवाज l
चिलचिलाते मौसम को मुंह चिढ़ाता,
जाड़ों में धूप भरता छत पे अधलेटा,
बारिशों में भीगता, नुक्कड़ के आखिरी
कोने पे खुशनुमा वो मकां !