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बुढ़ाते ख़्वाब के होठों पे है जो क़ैद इक सिसकी / गौतम राजरिशी
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बुढ़ाते ख़्वाब के होंठों पे है जो क़ैद इक सिसकी
तड़पती चाह ये ज़िंदा है जाने अब तलक किस की
सुलग उट्ठी है यादों की लपट माज़ी से टकरा कर
रगड़ खाते ही जल उठती है तीली जैसे माचिस की
सलोनी शाम जब बाँहें पकड़ कर ले चले घर को
थकन दिन भर की उड़ जाये बस इक पल में ही ऑफिस की
बिना तेरे, परेशां आज दीवाना है ये कितना
कभी इक इक अदा की बात ही कुछ और थी जिस की
अगर जाना ही है तुमको चले जाओ, मगर सुन लो
तुम्हीं से शम्अ की है रौशनी, रौनक भी मजलिस की
तेरे ही नाम की बस इक मुहर से है अमीरी ये
भला औक़ात क्या वरना कहो बिन तेरे मुफ़लिस की
ये बौराये-से मिसरे और ये अशआर बहके से
ज़रूरत है इन्हें अब तो ग़ज़ल वाले मुदर्रिस की
(आजकल, जून 2010)