भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुढ़ाते ख़्वाब के होठों पे है जो क़ैद इक सिसकी / गौतम राजरिशी

Kavita Kosh से
Gautam rajrishi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:00, 26 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गौतम राजरिशी |संग्रह=पाल ले इक रो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बुढ़ाते ख़्वाब के होंठों पे है जो क़ैद इक सिसकी
तड़पती चाह ये ज़िंदा है जाने अब तलक किस की

सुलग उट्ठी है यादों की लपट माज़ी से टकरा कर
रगड़ खाते ही जल उठती है तीली जैसे माचिस की

सलोनी शाम जब बाँहें पकड़ कर ले चले घर को
थकन दिन भर की उड़ जाये बस इक पल में ही ऑफिस की

बिना तेरे, परेशां आज दीवाना है ये कितना
कभी इक इक अदा की बात ही कुछ और थी जिस की

अगर जाना ही है तुमको चले जाओ, मगर सुन लो
तुम्हीं से शम्अ की है रौशनी, रौनक भी मजलिस की

तेरे ही नाम की बस इक मुहर से है अमीरी ये
भला औक़ात क्या वरना कहो बिन तेरे मुफ़लिस की

ये बौराये-से मिसरे और ये अशआर बहके से
ज़रूरत है इन्हें अब तो ग़ज़ल वाले मुदर्रिस की




(आजकल, जून 2010)