भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुद्धिजीवी / प्रतिभा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तर्कों के तीरों की कमी नहीं तरकस में,
बुद्धि के प्रयोगों की खुली छूट वाले हैं,
छोटी सी बात बड़ी दूर तलक खींचते,
राई का पहाड़ पल भर में बना बना डाले हैं!

बुद्धि पर बलात् मनमानी की आदत है,
प्रगति का ठेका सिर्फ़ अपना बतायेंगे!
खाने के दाँत, औ दिखाने के और लिये
दूसरों की टाँग खींच आप खिसक जायेंगे!

उजले इतिहास पे भी स्याही पोत धब्बे डाल
सीधी बात मोड-तोड़ टेढ़ी कर डालेंगे,
बड़े प्रतगिवादी हैं घर के ही शेर बड़े
औरों की बात हो, दबा के दुम भागेंगे!

इनके दिमाग़ का दिवालियापन देखो ज़रा,
अपनी संस्कृति की बात लगती बड़ी सस्ती है
इनकी बुद्धिजीविता है, मान्यताओं का मखौल,
भरी इन विभीषणों में मौका परस्ती है!

ये हैं प्रबुद्ध, बड़ी - बुद्धता का ठेका लिये,
शब्दों के अस्त्र-शस्त्र जिह्वा से चलाने में!
इनका जो ठेका इन्हीं के पास रहने दो,
कोई लाभ नहीं इनके तर्क आज़माने में

अरे तुम बहकना मत, इनके मुँह लगना मत,
ये तो बात-बात में घसीटेंगे, उधेड़ेंगे,
अपनी विरासत सम्हाल कर रखना ज़रा
इनका बस चले तो उसे ही बेच खायेंगे,

रूप-जीवा रूप, औ'ये बुद्धि की दुकान लगा
अपने लिये पूरापूरा-राशन जुटायेंगे!
औरों को टेर-टेर पट्टियाँ पढ़ाते हुये
अपने खाली ढोल ये ढमा-ढम बजायेंगे!