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बुना हुआ फ़रेब का न कोई जाल फेंकिए / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'
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बुना हुआ फ़रेब का न कोई जाल फेंकिए
जो चुभ रहा हूं शूल सा तो बस निकाल फेंकिए
हैं जानते जवाब तय तो हो चुका है आपका
नहीं जवाब इस का कुछ मगर सवाल फेंकिए
जो फ़ैसला है क़त्ल का तो आप वार ही करें
नुमाइशी-सी ये बहस की अपनी ढाल फेंकिए
बजाए रोशनी के जो सुलग-सुलग धुँआ करे
उठा के दूर दिलजली-सी वो मशाल फेंकिए
जब आँख से ज़बान से टपक-टपक रहा लहू
तो क्या करेंगी होलियां अबस गुलाल फेंकिए