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बुन्देली भूम / दुर्गेश दीक्षित

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धन्न है जा बुन्देली भूम, इतै की माटी खौं लएँ चूम,
इतै के कन-कन में भगवान, इतै के फूले फिरैं किसान।
हरीरे खेतन में, खुसी भई चेतन में।
ई धरनी पै आकैं मिटबै, सबइ काउ की पीरा,
भारत भर में जाहर भइया, ई धरनी के हीरा।
जगत में जाहर बीर अनेक, अमर भई बुन्देलन की टेक,
दया नित करबैं जुगल किसोर, चलै नई कभऊँ काउ कौ जोर।
सुहानी धरनी है, नाज-धन भरनी है।
पन्ना उर खजुराहो के जे मन्दिर बने सुहाने।
सिल्पकला देबी के दरसन, मिलैं कितऊँ नइँ, छाने;
धन्न हैं चित्रकार के हाँत, कि जिनके चित्र करत रएँ बात,
निरख कैं कला-धरम के क्षेत्र, सुफल हो जाबैं सबके नेत्र।
ओरछा विदिसा के, चलत जा रए साके।
लक्ष्मीबाई छत्रसाल की हो गई अमर कहानी।
अबै-अबै नौ हरी-भरी हैं, उनकीं जे रजधानी;
परी जाँ ऊ घुरवन की टाप, सत्रु कौ कर दओ अड्डा साप,
देखकैं बीरन की तरवार, भगे सब हथियारन खौं डार।
जुद्ध के खेतन में, हुकारैं देतन में।
चम्बल केन धसान बेतवा, कइअक नदियाँ बै रईं।
अपनी ऊ कल-कल की धुन में, जै-जै, जै-जै कै रई;
नदी जे जामनेर सजनाम, कछारैं जिनकी हैं सुखधाम।
सबई के संगम तीरथ भूम, धरम की राही धरा पै धूम;
नर्मदा मइया के, बिन्ध्य की गइया के।
बनदेवी कौ रूप सजाबैं, सेजौ सलई सगौंना।
जैसें कौंनउँ नइ दुलहिन कौ, हो कैं आ गओ गौंना;
कितऊँ हैं हरे भरे मैदान, कितऊँ परबत हैं कऊँ सुनसान।
सुरीले पंछी, नौने रूख, मिटाबैं सब तन-मन की भूख।
सुहानी छाया में, प्रकृति की माया में।