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बुलडोजर : तुलसी के राम का स्मरण / लीलाधर मंडलोई

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बचपन में मैंने देखे
हरे-भरे जंगल
उनके बीच बड़ी-बड़ी मशीनों से
धरती के गर्भ को भेदते लौह-अस्त्र

कोयले के भण्डारों की तलाश में
क्रूर तरीक़ों से जंगलों को
नेस्तनाबूद करने के लोमहर्षक दृश्य

वे कभी स्मृति से ओझल नहीं हुए
जीव-जन्तुओं के साथ उजड़ते देखा

आदिवासियों के घरों को

बुलड़ोज़र के भीमकाय उजाड़ू जबड़ों में
लुटती मनुष्यता को देखना बेहद मुश्किल था

बुलड़ोज़र के पार्श्व में थी कोई दैत्य-छवि
जिसे सब डरते हुए कोसते-गरियाते
लेकिन तब उजड़ने वालों से पूछने का रिवाज था

उनके साथ कोई भेदभाव न था, न जाति भेद
धर्म कभी विकास के रास्ते हथियारबन्द न था

आज बुलडोजर पर सवार जब कोई गुज़रता है
वह ड्राइवर नहीं तानाशाह होता है

वह किसी एक क़ौम को निशाने पर लेता है
वह मद में भूल जाता है

घरों में सोये ज़ईफ़ों, बच्चों यहाँ तक
गर्भवती महिलाओं को

भयावह त्रासद ख़बरों के बीच
दुख और पश्चाताप में असहाय

मैं करता हूँ तुलसी के राम का स्मरण
वह नहीं होता मौक़ा-ए-वारदात पर

वारदात को बेरहम ढंग से अंजाम देने वालों के भीतर
राम की जगह होता है मदान्ध तानाशाह का बीज

तानाशाह का ईमान और धर्म पूछती जनता
बुलडोजरों के जाने के बाद

एक बार फिर ध्वस्त जगहों पर
मुहब्बत के फूलों के खिलने के लिए

आशियाने बनाना शुरु कर देती है

इस बनाने से यह न समझा जाए
कि जनता बुलडोज़रों के साथ

तानाशाहों के महलों की तरफ़ कूच नहीं कर सकती ।