Last modified on 14 सितम्बर 2018, at 16:07

बूढ़ा पेड़ / दिनेश देवघरिया

चिड़ियों की गुदगुदाहट
घोंसलों में उनकी चहचहाहट
अब न रही।
अटूट-सा लगता
लताओं का प्यार
वल्लरियों से मेरा श्रृंगार
अब न रहा।
दु:ख-दर्द बाँटते
कुछ पल काटते
पर अपने से लगते
वे अनजान बटोही
अब न रहे।
मुझमें अब
मीठे फल जो नहीं लगते,
अब फूल नहीं खिलते,
तनों से अब
रस-धारें जो नहीं बहतीं,
अब मुझमें पत्तियाँ नहीं आतीं।
मैं सूख चुका हूँ।
अकेला रह गया हूँ
क्योंकि
बूढ़ा हो चुका हूँ।
बूढ़ा पेड़ बन चुका हूँ।