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"बूढ़ी आँखें जोह रही हैं इक टुकड़ा संदेश / वर्षा सिंह" के अवतरणों में अंतर

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पोता-पोती  बहू  बिना, ये  सूना लगे  स्वदेश ।
 
पोता-पोती  बहू  बिना, ये  सूना लगे  स्वदेश ।
  
जी०पी०एफ़० से एफ़०डी० तक किया निछावर जिस पे,
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जी०पी०एफ़० से एफ़० डी० तक किया निछावर जिस पे,
 
निपट परायों जैसा अब तो  वही आ  रहा  पेश ।
 
निपट परायों जैसा अब तो  वही आ  रहा  पेश ।
  

10:37, 23 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण

बूढ़ी आँखें जोह रही हैं इक टुकड़ा संदेश ।
माँ-बाबा को छोड़ के बिटवा, बसने गया विदेश ।

घर का आँगन, तुलसी बिरवा और काठ का घोड़ा
पोता-पोती बहू बिना, ये सूना लगे स्वदेश ।

जी०पी०एफ़० से एफ़० डी० तक किया निछावर जिस पे,
निपट परायों जैसा अब तो वही आ रहा पेश ।

‘तुम बूढ़े हो क्या समझोगे?’ यही कहा था उसने
जिसकी चिन्ता करते-करते, श्वेत हो गए केश ।

‘वर्षा’ हो या तपी दुपहरी, दरवाज़े वो बैठा
बिखरी साँसों से जीवित है, जो बूढ़ा दरवेश ।