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बूमरैंग / रघुवंश मणि

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एक भीड़ है
धुएँ जैसी छा जाती है
बादलों की तरह दृश्य ढँकती
समुद्र तटों पर
साइक्लोन की तरह

वह निकालती है
कुछ घुड़सवार
उन्हें तलवार पकड़ाती है
माथे पर तिलक लगाकर
भेजती है बादलों के पार
बहुत ख़ुश है सहस्त्राक्षी भीड़
अपने नायकों को देखकर
जाते हैं वे उस पार
शत्रुओं से छीन लाएंगे
भविष्य के स्वप्निल यथार्थ
सुनहले

हर बार यही होता है
शहर अपने नायकों को
खो देता है धूप में
ओस के वाष्पन की तरह
लोग आकाश निहारते-निहारते
लौट आते हैं वापस
अपने घरों को निराश
दीवार पर टँगी भूलों को
खाली निगाहों से तकते

आशाओं के घुड़सवार
विरोधियों की ओर से
आते हैं शहर की ओर
ख़बरों की तरह

लोग घरों से निकलते हैं
आश्चर्य से भयाक्रान्त