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बेटियाँ / प्रांजलि अवस्थी

एक छत
जिस पर मैं गिलहरी की तरह फुदकती थी
मेरे पापा के सीने की तरह थी
जिसने कभी मुझे बोझ नहीं समझा

एक जमीन
जिस पर मैं कभी जिद्द से
कभी थक कर बेसुध लोट लगा जाती थी
मेरी माँ की कोख़ की तरह थी
जो बार-बार मुझे नया जन्म देकर
अपने सीने से लगा लेती थी

मेरे पिता ने हमेशा मेरे लिए
आसमान की तरफ़ खिड़कियाँ खुली रक्खीं
और माँ ने चाल धीमी देख पंखों में हौंसलों की फूँक मारी

मुझे हमेशा ही लगा कि
आँगन भाई की हथेली की तरह है
 जिसमें पली बढ़ी बेटियाँ
 गौरैया कि तरह होती हैं
जिनके लिए
माँ के हाथ की रोटियाँ और पिता कि पुचकार
ईश्वर का शुभाशीष हैं।