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बेरोजगारी में / निशांत

बुख़ार में माँ नहीं आयी
आये पड़ोसी और मैं बच गया
अपने मैं के साथ
इस छोटे-से कस्बे के
एक कमरे के घर में

बुख़ार लग चुका था आत्मा को
वे देते रहे उसके सिर पर पानी की पट्टी

छोटा भाई घर से चला था
इस कमरे में पहुँचने के लिए
मैं शरणार्थी-सा पड़ा था यहाँ

एक कमरे में
जिसमें खिड़की की जगह सिर्फ दरवाजा था
और जिन्दा रहने के लिए
भरोसा करना करना जरूरी बताया जाता था
अपनी मेहनत अन्न दवाओं और इशारों पर

मरने से पहले
मैं रोना चाहता था ज़ोर-ज़ोर से
अपना सिर
किसी अपने की गोद में रखकर
बेरोज़गारी में बीमार पड़ना
एक चार दिवार वाले कमरे में
दुनिया की सबसे बड़ी यन्त्रण में पडना हैं
जब आत्मा चाहती है मुक्ति और शरीर आराम

पड़ोस की माँ बहन भाई बुआ
अपने माँ बहन भाई बुआ थे
सबसे ज्यादा मैं
सिर्फ एक पड़ोसी था
अपने मैं के साथ मृत्यु-शैया पर लेटा हुआ
बार-बार अपने मोबाइल को सहलाते हुए
मोबाइल मेरे ज़िन्दा रहने का प्रमाण था
जिसमें ’इनकमिंग’ की सुविधा
मैंने मौत तक मुहैया करा ली थी
मोबाइल
माँ बहन प्रेमिका पिता और छोटे भाई को
नहीं कर सकता प्रकट अपने अन्दर से
फिर भी मैं यही मानता रहा
वे न सही, उनका फोन ही आ जाय
मृत्यु का डर
लोगों को सनकी बना देता है
या घोर आस्थावान

मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ

मोबाइल की घंटी और लाल बत्ती जलने की प्रतीक्षा में
एक पागल सनकी या आस्थावान प्रेमी की तरह
बार-बार दरवाजे की तरफ निहारते हुए
एक आदिम प्रतीक्षा में पड़ा हूँ मैं
इस बड़े से महानगर के गर्भ में
एक छोटे-से कस्बे के
एक छोटे-से कमरे में
प्रेमिका का चेहरा बार-बार आँखों के सामने आता
मुसलमान होना गुनाह नहीं था
बेरोज़गार होने की तुलना में
डरपोक कायर और साहसी होना भी
गुनाह नहीं था
बेरोज़गार होने की तुलना में
हिन्दू होना बल नहीं देता था मेरी आत्मा को
गर्व नहीं कर पाता था अपने पर
प्रेम करना पाप करना था बेरोज़गारी में
समझ में नहीं आ रहे हैं ये सारे प्रश्न-उŸार
दिमाग की नस फट जाना चाहती है
और असहाय-सा मैं
सिर्फ और सिर्फ मरना चाहता हूँ
इस बुखार के ही बहाने
आत्महत्या तक करने का साहस
नहीं बचा है मेरे पास

इस बड़े से महानगर के गर्भ में स्थित
इस छोटे-से कस्बे के एक कमरे में
प्रेम करने के लिए
अभी भी जरूरी है जाति प्रमाण-पत्र
नौकरी तो बहुत बाद की चीज़ है
कहती है प्रेमिका
 भाभी बुआ चाची आदि....आदि....

पड़ोस की भाभी बुआ चाची भेैया
कब तक काम आ सकते है घर वालों की तरह
पड़ोस के बच्चे की कब तक कह सकता था ’सुनो बेटा’
और पड़ोस की बच्ची में कब तक देखता रहता अपना ’सोनू’
मैं अपने ’मै’ की खुराक के लिए
कब तक जुगाड़ता रहता ऐसे जुगाड़
जबकि पड़ोसी गायब हो रहे थे
निहायत ही पड़ोसी गन्ध की तरह
मैं बीमार था
पिता प्रेमिका को याद करते हुए भाई की प्रतीक्षा में
जो एक घर में पहुँचने के लिए
कमरे के एक घर में तब्दील हो जाने की
आठ साल पुरानी ख़्वाहिश लिये

मैं यहॉँ बिस्तर पर पड़ा
सिर्फ इन्तज़ार कर रहा हूँ
मौत का भाई का प्रेमिका का
किस-किसका खुद नहीं जानता
बुखार से मतिभ्रम हो गया है या मतिभ्रम से बुख़ार
कुछ समझ में नहीं आता

दुर्दिनों में एक पड़ोसी दे गया
एक समोसा एक बड़ी कप चाय
रोटी-चपाती और दूध का ग्लास जैसा कप
कुछ समय अपने ’मैं’ से निकलकर मेरे ’मैं’ को
जिसके बच्चे की हिन्दी
कभी-कभार में देख लिया करता हूँ
तब भाई यात्रा में था
माँ बहन प्रेमिका पिता मोबाइल में
मैं एक चार दीवार के कमरे में लेटा
अपने मैं के साथ मरने की ख़्वाहिश लिये
जीने की तैयारी करते हुए
दुर्दिनों में माँ नहीं आयी
आये पड़ोसी और मैं बच गया
अपने मैं के साथ
इस बड़े-से महानगर के गर्भ में स्थित
इस छोटे-से क़स्बे के इस कमरे में...