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बेल-सी वह मेरे भीतर / अज्ञेय

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बेल-सी वह मेरे भीतर उगी है, बढ़ती है।
उस की कलियाँ हैं मेरी आँखें,
कोंपलें मेरी अँगुलियों में अँकुराती हैं;
फूल-अरे, यह दिल में क्या खिलता है!

साँस उस की पँखुड़ियाँ सहलाती हैं।
बाँहें उसी के वलय में बँध कसमसाती हैं।
बेल-सी वह मेरे भीतर उगी है, बढ़ती है,
जितना मैं चुकता जाता हूँ,
वह मुझे ऐश्वर्य से मढ़ती है!