Last modified on 27 जुलाई 2013, at 09:58

बे-इल्तिफ़ाती / हसन 'नईम'

सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:58, 27 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हकीम 'नासिर' }} {{KKCatNazm}} <poem> मैं ने हर ग़...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैं ने हर ग़म में तिरा साथ दिया है अब तक
तेरी हर ताज़ा मसर्रत पे हुआ हूँ मसरूर
अपनी क़िस्मत के बदलते हुए धारों के सिवा
तेरी क़िस्मत के भँवर से भी हुआ हूँ मजबूर
तेरे सीने का हर इक राज़ बता सकता हूँ
मुझ में पोशीदा नहीं कोई तिरा-सोज़-ए-दुरूँ
फ़िक्र-ए-मानूस पे ज़ाहिर है हर इक ख़्वाब-ए-जीमल
और हर ख़्वाब से मिलता है मुझे कितना सुकूँ
आज तक तू ने मगर मुझ से न पूछा है कभी
क्यूँ मिरे ग़म से तिरा चेहरा उतर जाता है
जब मिरे दिल में लहकते हैं मसर्रत के कँवल
क्यूँ तिरा चेहरा मसर्रत से निखर जाता है