भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बे-सम्त रास्तों पे सदा ले गई मुझे / इफ़्फ़त ज़रीन
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:34, 1 मई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=इफ़्फ़त ज़रीन }} {{KKCatGhazal}} <poem> बे-सम्त र...' के साथ नया पन्ना बनाया)
बे-सम्त रास्तों पे सदा ले गई मुझे
आहट मगर जुनूँ की बचा ले गई मुझे
पत्थर के जिस्म मोम के चेहरे धुआँ धुआँ
किस शहर में उड़ा के हवा ले गई मुझे
माथे पे उस के देख के लाली सिंदूर की
ज़ख़्मों की अंजुमन में हिना ले गई मुझे
ख़ुश-बू पिघलते लम्हों की साँसों में खो गई
ख़ुश-बू की वादियों में सबा ले गई मुझे
जो लोग भीक देते हैं चेहरे को देख कर
'ज़र्रीं' उन्हीं के दर पे अना ले गई मुझे