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बैत भर आकास / गौतम अरोड़ा

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भीड़,
दिनो-दिन बधती भीड़
रोजीनां,
इण भीड़ मांय बध जावै सैंकड़ूं नुवां चैरा
पण फेरू भी
म्हैं
खुद नै इण भीड़ बिचाळै घणौ एकलौ समझूं
रोजीना करूं, म्हैं कोसिस
खुद नै इण भीड़ सूं न्यारौ करण री
अर इण भीड़ स्यूं न्यारौ व्हैय
पंख्यां पसार आभै में उडण री ।
पण
हर बार,
एक वजनदार हाथ रै जोरदार धक्कै सूं
म्हैं फेरू इण भीड़ भेळो कर दियो जावूं
तद देखूं
कै भीड़ फेरू कीं बधगी है ।
अर
आगै निकळ गिया फेरू कीं लांठा लोग
अर म्हैं पूगगौ पैली सूं भी लारै, घणौ लारै ।
पण
बार-बार, हर बार
उण धक्कै देवणियै हाथ नै म्हैं कैवूं
कै नीं चाइजै म्हनै उडण सारू लम्बो-चौड़ौ आकास
बस म्हनै दे द्यो इत्तो ई’ज
जिण में लेय सकूं सांस
राखौ ओ थांरौ पूरौ आभौ
अर राखौ पग पसारण सारू, आ सगळी उपजाऊ धरती
म्हरै सारू
म्हैं खुद जोय लेवूंला
म्हरौ
बैत भर आकास ।