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बोआई शुरू बा / कुमार वीरेन्द्र

भोरहीं से
एगो कोना माई जौ-गेहूँ फटकते गा
रही गीत, एगो कोना भौजी टघराते तेलहन-मटर, गुनगुना रही रीत, एगो कोना बहिनियाँ फटक रहीं
बूँट-खेसारी, एगो कोना धनिया बना रही रोटी-तरकारी, कि कतिकी लड़ाई शुरू बा, बोआई शुरू बा
भइया गए ठीक करने खेतों के कोन, लिए कुदारी, छोटा भाई ट्रैक्टर वाले की कबसे
अगोरे बैठा है दुआरी, और हई कवि जी हाली-हाली खिला दूह रहे गाय
सबको कहाँ आने को मौक़ा खेत प पहुँचा सकें खाय, कि
अबहीं त चढाई शुरू बा, कि बोआई शुरू बा
जेहि कनिया ने नाहीं छुए कबहुँ
सूप-चलनी, ऊ सास
ननद संग

लगी हैं, बड़ी रे
खटनी, मुँहे दतुवन नाहीं घूँट-भर पानी
बेर रहते बीया, बनाने को है ठानी, साक्षात् बहुरी-बड़ाई शुरू बा, कि बोआई शुरू बा; कोई माँगे आवे
पइँचा कोई उधारी, कातिक मासे हित लागे बैरी, बैरी हित प भारी, केहू सोनार घरे चइत भरोसे गहना
गुरिया रखे, केहू देह-जाँगर भरोसे गोड़े पगड़ी-मूँड़िया रखे, बुराई कतहुँ भलाई शुरू बा
कि बोआई शुरू बा; बधारी में दिखत सब-के-सब काम में भिड़े, केहू मेंड़
बनावत इस तीरे, केहू उस तीरे, जो आए हैं नोकरी से छुट्टी
ऊ भी उखाड़ रहे खेत में खूँटी, केहू को फ़ुरसत
ना खैनी खाए-खिआवे के, छन-भर
बोले के नाहीं छन-भर
बतियावे के

कोई ना चाहे
कातिक हो हाथ से बेहाथ, साल-भर
पेट का उपाय होवे पछात, ख़ुद प ख़ुद ही, कड़ाई शुरू बा, कि बोआई शुरू बा; कोई खेत
एक चास तो कोई दुई चास, हर कोई चुन-चुन कगारी फेंक रहा घास, बोआई से पहिले जे
चढ़े हेंगा पे कवि जी, हेंगा पे कवि जी की लहराए छवि जी, का जाने उड़त
आवत-जात चिरइयों को देख, कि बाँध नीचे घास गढ़त लगुआ
घसगढ़िनों को निरेख, मनवा की चहकाई शुरू बा
कविताई शुरू बा, ‘ई अँहार जिनिगिया
के सपनवा अँजोर गोरिया
तू बन्हले रहऽ
 
नेहिया के डोर, होई भोर गोरिया !’