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बोध / मनोज श्रीवास्तव

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   बोध
 
महास्वप्न की
वृत्ताकार जीवनमयता में
ठोस वायव अस्तित्त्व का
कटु यथार्थ भोग रहा हूं

कितना सच हैं--
सतत चढाव से सीमाबद्ध
यह जैविक अवसान
यह पतन
यह बोध
यह उन्माद!

कितना निश्छल है--
महास्वप्न की
अनुभूति की प्रक्रिया में
इसे साकार करने का त्रिशंकु प्रयास!

कितनी अजीब है--
कल्पना और यथार्थ के
हिंडोले में
झूलती ऐन्द्रियता
जिसका अतीत-बोध
एक स्वप्निल चित्र है
और वर्त्तमान
एक मायावी षड्यंत्र!