भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बोलकर हम भी अब चुप हो गए हैं / नीना कुमार
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:13, 10 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीना कुमार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGha...' के साथ नया पन्ना बनाया)
बोलकर हम भी अब चुप हो गए हैं
ज़ीस्त की मसरूफ़ियत में खो गए हैं
अपनी बला से जूझो तुम दिन रात से
थक कर हम आरामगाह में सो गए हैं
कोई आये या ना आये वीरानिओं में
बारिशों के मौसम आ कर रो गए हैं
सहरा में ढूंढते हो खोए नक्श-ए-पा?
दीवाना कह रहा के बादल धो गए हैं
एक सिरफिरा खड़ा झील पर है कह रहा
कुछ लोग अपनी आबरू डुबो गए हैं
रचनाकाल: 9 अगस्त 2013