बोलकर हम भी अब चुप हो गए हैं
ज़ीस्त की मसरूफ़ियत में खो गए हैं
अपनी बला से जूझो तुम दिन रात से
थक कर हम आरामगाह में सो गए हैं
कोई आये या ना आये वीरानिओं में
बारिशों के मौसम आ कर रो गए हैं
सहरा में ढूंढते हो खोए नक्श-ए-पा?
दीवाना कह रहा के बादल धो गए हैं
एक सिरफिरा खड़ा झील पर है कह रहा
कुछ लोग अपनी आबरू डुबो गए हैं
रचनाकाल: 9 अगस्त 2013