जितना
जिसके खाते
करना है भरपाई,
-बोली
तर्पण जल से
निर्जल बूढ़ी माई !
कटती
पिटती लकीर,
बनते
मिटते साँचे,
पहले थे
जो मंजीरे,
अब वे
टूटे काँसे,
साहिब
निकले फ़कीर
याचक निकले साईं !
जलते
बुझते अलाव
अँधियारा
उजियारा,
काहे का
अहंकार,
कैसा
ठाकुरद्वारा,
-बोली
सुरमंडल से
उदासीन परछाईं !
(धर्मयुग, 16 दिसंबर, 1973)