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बौनों के शहर में / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

और आखिर उतर आयी रात
बौनों के शहर में

सुबह से
मीनार में दिन
सीढ़ियों पर चढ़ रहे थे
एक टूटे आयने में
अक्स अपने पढ़ रहे थे

सुन रहे थे गुंबजों की बात
बौनों के शहर में

मुट्ठियों में
धूप के नुस्खे दबोचे
सब मिले थे
फूल की पगडंडियों पर
पतझरों के सिलसिले थे

हो रही थी धूप की बरसात
बौनों के शहर में

एक बहती है नदी
गुमसुम
हवाएँ चुप खड़ी हैं
बत्तियों के तले
अंधे कुएँ
गहरी बावड़ी है

डूबते जिसमें सभी हर रात
बौनों के शहर में