भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
Tusharmj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:42, 8 दिसम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन }} बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।


माना अब आकाश खुला-सा और धुला-सा

फैला-फैला नीला-नीला,

बर्फ़ जली-सी, पीली-पीली दूब हरी फिर,

जिपर खिलता फूल फबीला

तरु की निवारण डालों पर मूँगा, पन्‍ना
औ' दखिनहटे का झकझोरा,

बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।


माना, गाना गानेवाली चि‍ड़‍ियाँ आईं,

सुन पड़ती कोकिल की बोली,

चली गई थी गर्म प्रदेशों में कुछ दिन को

जो, लौटी हंसों की टोली,

सजी-बजी बारात खड़ी है रंग-बिरंगी,
किंतु न दुल्‍हे के सिर जब तक

मंजरियों का मौर-मुकुट कोई पहनाए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।


डार-पात सब पीत पुष्‍पमय कर लेता

अमलतास को कौन छिपाए,

सेमल और पलाशों ने सिंदूर-पताके

नहीं गगन में क्‍यों फहराए?

छोड़ नगर की सँकड़ी गलियाँ, घर-दर, बाहर
आया, पर फूली सरसों से

मीलों लंबे खेत नहीं दिखते पयराए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।


प्रात: से संध्‍या तक पशुवत् मेहनत करके

चूर-चूर हो जाने पर भी,

एक बार भी तीन सैकड़े पैंसठ दिन में

पूरा पेट न खाने पर भी

मौसम की मदमस्‍त हवा पी जो हो उठते
हैं मतवाले, पागल, उनके

फाग-राग ने रातों रक्‍खा नहीं जगाए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।