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बौरों के दिन / देवेन्द्र कुमार

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बौरों के दिन
दादी-माँ के हाथों
कौरों के दिन ।

पत्तों के हाथ जुड़े
ये आँखों के टुकड़े
कितने अनुकूल हुए
औरों के दिन ।

पेड़ों की छाया है
अपनी भी काया है
फूलों की साँठ-गाँठ
भौरों के दिन ।

जहाँ नदी गहरी है
वहीं नाव ठहरी है
पत्थर के सीने
हथौड़ों के दिन ।