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ब्यान-ए-जुदाई मेरा मश्ग़ला नहीं है दिलबर / शमशाद इलाही अंसारी

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ब्यान-ए-जुदाई मेरा मश्ग़ला नहीं है दिलबर
फ़िर भी हर घड़ी ये दिल परिशां-सा क्यूँ है।

सोते हुए मैं जागूँ, जागूँ तो खोया-सा रहूँ
हर पल ये बेक़रारी मेरी धड़कनों में क्यूँ है।

रिसते हुए ज़ख़्मों को सोखा है उम्र भर
अब मेरे तस्सव्वुर पे ये साया-सा क्यूँ है।

कभी तो होगी कोई आहट का़सिद के कदमों की
ये मेरा दरवाज़ा मुद्दतों से सूना-सा क्यूँ है।

चलो बहुत हुआ "शम्स" अब कुछ और साँस हैं बाकी
कशमकश में कोई है किसी का उसे इंतज़ार क्यूँ है।



रचनाकाल: 11.11.2002