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ब्रजेश भाई / प्रकाश मनु

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सब दिशाओं के खो जाने के बाद (बावजूद)
जीने को
क्या कहते हैं ब्रजेश भाई?

ना...हंसो नहीं,
यह सचमुच किसी कविता में अड़ाने लायक
कोई बिम्ब नहीं/कोई आरोपित चिन्तन-मुद्रा नहीं-
एक सवाल है ब्रजेश भाई?

यह वाकई परेशान करने वाली और
हड्डियों की भीतरी तह तक घुसकर कैफियत मांगने
तर्क करने वाली चीज है-
कम से कम दोस्ती (के अर्थ) की खातिर सही?

क्या बिना तर्क के
कोई दोस्ती होती है-कोई सही दोस्ती
कि जो जीती है-फालतू या जरूरी दैनिक जरूरतों
से परे या उनके साथ भी
किसी गहरे अर्थ में!
कि जो केवल साथ-साथ वक्त काटना नहीं
एक नैतिक ऊहापोह भी है?

तो इस मांस के लोथड़े को क्या कहोगे ब्रजेश भाई
कि जो मरा नहीं जिन्दा भी नहीं रह सका
बस है-यह होना भी बस व्यावहारिक
अस्तित्व है और बाकी सब खामख्याली (क्या यह शब्द होता है)
यह तो नहीं कहोगे?

शादी के बाद बस यही सब रहता है खिड़की भर
आकाश-नहीं ब्रजेश भाई, इसे नहीं दोहराओ-
मैंने जितनी बार सोचा है
मुझे कहीं भीतर से लगा है यह गलत है। बात को
सुविधाजनक मोड़ पर तोड़ने का ढंग। इसका दंश
मुझसे सहा नहीं जाता
ब्रजेश भाई, मुझे लगता है
मैं कोई जरूरी चीज भूल रहा हूं...
याद दिला सकोगे?

तुमने जिन्दगी के बहुत आड़े वक्त और मोड़ों पर
मुझे बचाया है-मुझे खतरनाक
नहीं होने दिया अपने (मेरे) प्रति (कम-से-कम)
मैं वह सब याद कर सकता हूं-
और उससे जुड़ा मेरा एक-एक पल का संघर्षण?

यों तुम्हारे प्रति मैं कम क्रूर नहीं रहा हूं बहुत मौकों पर
(मुझे यह सब स्वीकारना चाहिए। अपने और तुम्हारे
लिए-यों तुम जानते ही हो!)
और झगड़ता रहा हूं जितना लगातार झगड़ालूपन
दोस्तों में अक्सर होता नहीं है
बाकी (और साथ-साथ) जो जितना गहरे महसूसा
अपनी आसपास की दुनिया के किसी खुलते हुए अर्थ के साथ
वह तो है ही

तो क्या यह कुछ नहीं था। इतना भी नहीं
कि मैं बेझिझक तुम्हारे आगे आ सकूं किसी भी शक्ल में
या कम-से-कम शर्मिन्दगी नहीं महसूसूं?
ऐसा क्यों है ब्रजेश भाई कि सहम-सहम कर
एक-दूसरे को बचाते हुए जिये गये पल
वक्त के इस छोटे से खंड, मामूली अर्से में ही खत्म हो गये हैं
वाष्पीकृत होकर उड़ता छिछला द्रव जैसे!
और वे अदनी से अदनी झगड़ालू तनाव-मुद्राएं
अर्थवान हो उठी हैं कुछ कहती और
ललकारती हैं फिर से?

क्या कुछ ऐसा ही है जीवन...जीने और
याद रखने लायक दो चार स्फुलिंग
एकाध जलती हथेली...

पर-पर यह क्यों है
कि कोई जरूरी अर्थ में भूल रहा हूं...
या अक्सर सही मौकों पर
गलत ढंग से भूल जाता हूं
तुम-सिर्फ तुम ही बता सकते हो ब्रजेश भाई?