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भँगिया पिसयते महादेओ, सुनहऽ बचन मोरा हे / मगही

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मगही लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

भँगिया पिसयते महादेओ, सुनहऽ बचन मोरा हे।
देओ,<ref>देव</ref> तोरा धनी दरद बेयाकुल, तोरा के बोलावथु<ref>बोलावहथुन, जि. पटना, बोलावहथु जि. गया</ref> हे॥1॥
एतना बचन जब सुनलन, सुनहु न पओलन हे।
बुढ़उ बैल पीठी भेलन असवार, कहाँ रे धनी बेआकुल हे॥2॥
सउरी में से बोलथी गउरा<ref>गौरी</ref> देई, सुनहऽ बचन मोरा हे।
देओ, लाज सरम केरा बतिया, तोरा से कहियो केता<ref>कितना</ref> हे॥3॥
मारहे पँजरवा<ref>काँख और कमर के बीचवाला किनारे का भाग पँजरवा के पीर = प्रसव वेदना</ref> में पीर से डगरिन बोलाइ देहु हे॥4॥
एतना बचन जब सुनलन, बुढ़वा दिगम्बर हे।
बुढ़उ बैल पीठ भेलन असबार, कहाँ रे बसे डगरिन हे॥5॥
बाट जे पूछहथ<ref>पूछते हैं</ref> बटोहिआ त कुइआँ पनिहारिन<ref>कुएँ पर की पनिहारिन</ref> हे।
इहाँ त सहरबा के लोग, काहाँ रे बसे डगरिन हे॥6॥
ऊँची चउपरिया<ref>चौमहला</ref> पुर<ref>मकान</ref> पाटन<ref>कोठेवाला</ref> आले<ref>हरे हरे</ref> बाँस छावल हे<ref>इस पंक्ति को मगह के कुछ भागों में निम्नलिखित प्रकार से भी गाया जाता है - ऊँची पुरइया पुर पातर पाटल, आले बाँस छावल हे।’ इस रूप में ‘पुरइया’ का अर्थ ‘नगर’ ‘पाटल’ का ‘पाटा हुआ’ तथा ‘पातर’ का ‘पतला’ लिया जायगा।</ref>
दुअरे चननवा के गाछ, उहाँ रे बसे डगरिन हे॥7॥
डगरिन डगरिन पुकारथि,<ref>पुकारते हैं</ref> डगरिन अरज करे हे।
के मोरा खोलहे<ref>खोलता है</ref> केवरिया<ref>किवाड़</ref> त रतन जड़ल हकइ<ref>है</ref> हे॥8॥
हम हिअइ<ref>है</ref> देओ महादेओ, हम तोरा टाटी खोली हे॥9॥
की<ref>क्या</ref> तोरा माय कि मउसी, कि सगर<ref>साथ की</ref> पितिआइन<ref>चाची</ref> हे।
की तोरा घर गिरथाइन<ref>घर-गृहस्थी सँभालने वाली, पत्नी</ref> दरद बेआकुल हे॥10॥
नइ मोरा माय से मउसी, से सगर पित्त्आिइन हे।
मोरा धनि दरद बेयाकुल, तोंहि के बोलावथु हे॥11॥
पैरे ही पैरे<ref>पाँवे-पाँवे, पैदल</ref> नहीं जायब, पैर दुखायत<ref>दुखेगा, दर्द करेगा</ref> हे।
आनि देहु मोरा सुखपाल,<ref>सुखपालिका, चण्डोल; पालकी</ref> ओहि रे चढ़ि जायब हे॥12॥
एतना बचन जब सुनलन बुढ़वा दिगंबर हे।
चलि भेलन बैल असवार, घरहि घुरि<ref>लौट आना</ref> आयल हे।
एक त जाति के डगरिन, बोलऽहइ<ref>बोलती है</ref> गरब सयँ<ref>गर्व से</ref> हे।
माँग हकइ संझा<ref>पालकी ढाँकने का रंगीन और काम किया ओहार। सँझा-संजक संजाफ। फा. = गोटा, किनारी</ref> सुखपाल ओहि<ref>उसी पर</ref> रे चढ़ि जायब हे॥14॥
एक त सिवजी दलिद्दर,<ref>दरिद्र</ref> जलम के खाके<ref>राख</ref> भाँड़े<ref>हँसी के पात्र</ref> हे।
सिव, लेइ जाहु संझा सुखपाल, ओहिरे चढ़ि आवत हे॥15॥
डड़ियहि<ref>पालकी</ref> आवथी डगरिन, चाउँर डोलत आवे हे।
चनन से अँगना लिपायल सुघर डगरिन पग धरे हे॥16॥
घड़ी रात बीतल, पहर रात, अउरो आधिए रात हे।
लेलन गनेस औतार, महल उठे सोहर हे॥17॥

शब्दार्थ
<references/>