भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भउजी कहलन अएलो होली / सच्चिदानंद प्रेमी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:54, 11 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सच्चिदानंद प्रेमी |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भउजी कहलन अएलो होली-
जा रधियाा के नइहर आज,
हमहूँ घी के ढिवरी बारब-
दुन्नू के हो जाए सुराज;
मनुआँ धड़फड़ायल जगले
अँखिए में हो गेलो भोर
गठरी मोटरी लादके चललूँ
मुर्गा जइसे कएलक सोर;
मत पूछऽ स्वागत में केतना
सरहज, साली, सास के बात,
पापड़ चटनी सजल कटोटी
दाल मखानी छौंकल भात;
रोटी न´ँ हल, छानल पूड़ी-
छछनावल बजका आउ साग
लेकिन जेकरा ला गेली हल-
न´्ँ ऊ आवे न´ँ् हो रात;
का कहियो छानी छप्पर तक
आँख गड़ाके गेलू हार।
अँगना के टँगना में भी न´्
पइलूँ देख सूट सलवार
सुजनी में भी न´् सजनी के
अंगिया, साड़ी आउ सौगात
गाँती-गात यही खटपट में, झपकल अँखिया हो गेल रात।
छन-मन-झन-झन छुम-छुम टन-टन
लगल रधिया के पायल राग।
भला न कइसे औतन सजनी
केकरा संगे खेलतन फाग।
ओढ़ना फेंक गलवा ही ला
उठलूँ, देखलूँ हाय रे मार?
भैंस तोड़ के भागल जा हल
ओकरे सिकुड़ के हल झंकार
सूते के फिर से नखड़ा कइलूँ
सोचलूँ किस्मत के ई खेल,
काहे ला अललूँ होली में
रधिया से जब भेंटोन मेल।
नींद निगोड़ी तनिक न आवे
सुतलूँ लगल कि भाग जगल।
लगल कि तरबा में धीरे से-
नरम हाथ कोई फेर रहल।
उढ़लूँ, हवाक के धइलूँ कह-
प्राण प्यारी! हाय! आस फिरल।
खटिया तर मट्टी कोड़इत गे
कुतिया के हल पूँछ उठल।
किस्मत के भारल नक्षत्र के
अझुरावाल हम हो परेसान,
गँवा के अपन अकल बुद्धि
नींद, चैन, पैसा आउ सान;
करवट बदल-बदल के सोचूँ
मदन महोत्सव होली फाग,
सच में अकल झुलसिए जाहे
धधकऽ हे जब काम के आग;
लगलो अबरी रधिया अएलो
चॅपते धीरे-धीरे गोड़,
न´् उठलूँ गत्ते से कहलूँ
अएलऽ भी तो करके भोर;
रधिया के भभके हम कस के
सास-ससुर के धइलूँ हाँथ
का कहियो परदे में छोड़ऽ
जे कुछ बितलो हमरा साथ।
अब समझऽ तू हम्मर हालत
आठो गरह हल प्रतिकूल।
ई रधिया के मामू घर हल
हम गेलूँ हल रहिये भूल।