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भगत सिंह / श्वेता राय

मेघ बन कर छा गये जो, वक्त के अंगार पे।
रख दिए थे शीश अपना, मृत्यु की तलवार पे॥
तज गये जो वायु शीतल, लू थपेड़ो में घिरे।
आज भी नव चेतना बन, वो नज़र मैं हैं तिरे॥

मुक्ति से था प्रेम उनको, बेड़ियाँ चुभती रहीं।
चाल उनकी देख सदियाँ, हैं यहाँ झुकती रहीं॥
मृत्यु से अभिसार उनका, लोभ जीवन तज गया।
आज भी जो गीत बनकर, हर अधर पर सज गया॥

तेज उनका था अनोखा, मुक्ति जीवन सार था।
इस धरा से उस गगन तक, गूँजता हुंकार था॥
छू सका कोई कहाँ पर, चढ़ गये जो वो शिखर।
आज भी इतिहास में वो, बन चमकते हैं प्रखर॥

आज हम आज़ाद फिरते, उस लहू की धार से।
चूमते थे जो धरा को, माँ समझ कर प्यार से॥
क्या करूँ कैसे करूँ मैं, छू सकूँ उनके चरण।
देश हित बढ़ कर हृदय से, मृत्यु का कर लूँ वरण॥

कर रही उनको नमन...
खिल रहा उनसे चमन..
छू सकूँ उनके चरण...