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भगवान श्रीकृष्ण / मन्नन द्विवेदी गजपुरी

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पाप से सद्धर्म छिप जाता जगत में जब कभी
ईश सब सन्ताप हरने को प्रकट होता तभी

धर्म-रक्षा हेतु करके दुर्जनों का सर्वनाश
दूर कर संसार का तम सत्य का करता विकाश

इस तरह अवतार लेता विश्व में विश्वेश है
शेष रहता फिर कहाँ आपत्ति का लवलेश है

कंस ने उत्पात भारी जब मचाया था यहाँ
द्यूतकारी मद्यपी धन लूटता पाता जहाँ

डर उसे था हर घड़ी श्रीकृष्ण के अवतार का
देवती को दुख मिला पतियुक्त कारागार का

भाद्र की कृष्णाष्टमी सब ओर छाया अंधकार
चञ्चला घनघोरमाला में चमकती बार बार

ज्योति निर्मल देवकी के गर्भ में हो भासमान
विश्वपति शिशुरूप में लाया गया गोकुल निदान

नन्द ने अपना समझ कर प्रेम से पाला उसे
इसलिए संसार कहता नन्द का लाला उसे

कृष्ण वंशी को बजा गायें चराता था कभी
दूध माखन चोर कर मन को चुराता था कभी

पूतना केशी तथा कंसादि का संहार कर
द्वारिका जाके बसाया देवद्विज का कष्ट हर

बात ही उलटी हुई हा! अब मुरारी हैं नहीं
अब हमारे बीच में व्रज का विहारी है नहीं

किन्तु उसका रूप सुन्दर है नहीं दिल से हटा
याद आती हाय! अब भी साँवली सुन्दर छटा

है मुझे विश्वास, फिर भी श्याम आवेगा कभी
मोहनेवाली मधुर बंशी बजावेगा कभी

पाप-तापों से हमें वह फिर छुड़ावेगा कभी
सर्व दु:खों को दयामय फिर मिटावेगा कभी


’सरस्वती’ पत्रिका के हीरक जयंती विशेषांक में प्रकाशित