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भग्न तारों को सजाकर, / प्रथम सर्ग / गुलाब खंडेलवाल

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भग्न तारों को सजाकर,
साधना के स्वर मिलाकर,
आज मैं फिर से तुम्हें अपना बनाना चाहता हूँ;
शब्द की ईंटें हृदय की भावना का लेप लेकर
मैं समय के स्रोत पर मंदिर उठाना चाहता हूँ
और भावी पीढ़ियाँ जिसमें पढ़ें इतिहास अपना,
आँधियों के शीश पर नवकल्प के ज्योतिश्चरण का
मैं वही दीपक जलाना चाहता हूँ.
टूटता है व्योम तो नक्षत्र तो टिकता नहीं है
काल का जो घूमता है चक्र रुकता है भला कब!
किन्तु पुरुषार्थी पुरुष ऐसे कभी आते यहाँ हैं
रोक लेते क्रुद्ध अशनि-निपात अपने करतलों पर
काल-कालिय के कुटिल विषमय फणों को नाथ देते
जो सुधा लाते सुधाकर को समूल निचोड़कर भी,
फोड़कर घट उर्वशी का
धँस अतल में
क्रुद्ध वासुकि के दशन को तोड़कर भी.
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