भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भटक रही है जो रूह मेरी कभी इस मकाँ, कभी उस मकाँ / डी. एम. मिश्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:19, 19 अगस्त 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=डी. एम. मिश्र |संग्रह=आईना-दर-आईना /...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भटक रही है जो रूह मेरी कभी इस मकाँ, कभी उस मकाँ।
किसी ने मेरा जहाँ ले लिया, किसी ने अपना लिया आसमाँ।

कभी वो मंदिर की चौखटों पे, कभी वो श्मशान के धुएँ में,
नसीब में गुल की ठोकरें हैं, मुकाम पे अपने है गुलिस्ताँ।

कभी ये दावा नहीं किया है कि मैं भी कीचड़ का इक कमल हूँ,
हज़ार मेरे गुनाह होगे मुझे मुआफ़ कर मेरे मेहरबाँ।

वो चाँदनी का दुल्हन-सा सजना, वो शबनमी तारों का निखरना,
मैं अपनी मौत आज खुद भी देखॅू फिर वो घटा हो फिर वो समाँ।