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भय की एक नदी / राजेन्द्र गौतम

इस जँगल में आग लगी है
बरगद जलते हैं

भुने कबूतर शाखों से हैं
टप-टप चू पड़ते
हवन-कुण्ड में लपट उठे ज्यों
यों समिधा बनते

अण्डे-बच्चे नहीं बचेंगे
नीड़ सुलगते हैं

पिघला लावा भर लाई यह
जाती हुई सदी
हिरणों की आँखों में बहती
भय की एक नदी

झीलों-तालों से तेज़ाबी
बादल उठते हैं

उजले कल की छाया ठिठकी
काले ठूँठों पर
नरक बना घुटती चीख़ों से
यह कलरव का घर

दूब उबलती, रेत पिघलती
खेत झुलसते हैं