Last modified on 3 अगस्त 2013, at 15:31

भरम / शर्मिष्ठा पाण्डेय

मंडी सजाये बैठे हैं ईमानदार लोग
कुछ तो तवायफों को भरम रहने दीजिये

माना कि बिकता सौदा है मुंह-मांगे दाम पे
इक ज़रा मिल्कियत की शरम रहने दीजिये

कू-ए-निगाराँ में लगी क्या खूब नुमाइश
कुछ पाक से जज्बों पे रहम रहने दीजिये

अब बे-अमां तो शपा का किरदार नहीं है
बस आप पुख्तगी का वहम रहने दीजिये

फिर आज जज्बे-सख्त से दिल तार-तार है
कोने में कहीं गोशा-नरम रहने दीजिये

कू-ए-निगाराँ= महबूबों की गली

बे-अमां= आश्रयहीन)