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भर आया क्यों नीर नयन में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

भर आया क्यों नीर नयन में

मैं समीप बैठा हूँ तेरे,
तुझको मेरी छाया घेरे,

मुक्त, मृदुल-शीतल समीर ने,
पीर कौन ढाली तन-मन में!
भर आया क्यों नीर नयन में

तू अपलक कुछ देख रही थी,
किसने तेरी दृष्टि गही थी,

अब न ठीक से मुख भी अपना
दिखता होगा उस दर्पन में!
भर आया क्यों नीर नयन में!

आज रात क्या नींद न आई,
इस बेला में तू अलसाई,

चल, श्रंगार करूँ मैं तेरा
हरसिंगार झरते उपवन में!
भर आया क्यों नीर नयन में!