भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भविष्य / रचना दीक्षित

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर दिन सुबह सवेरे
बनाती हूँ जब चाय
देखती हूँ गर्म पानी के इशारे पे नाचती
चाय की पत्ती
उसका दिल जीतने का
हर संभव प्रयास करती
इतराती, इठलाती, बलखाती,
झूम झूम जाती
तब तक
जब तक बंद नहीं कर देती मैं आंच
जब तक खो नहीं जाता
उसका रूप, रंग, यौवन
सुडौल सुन्दर दानों की जगह
बेडौल थुल थुल काया
फिर बैठ जाता है
पत्तियों का झुण्ड
बर्तन की तली पर
थका, हारा, हताश,
फिर भी शांत
दूर कर देती हूँ फिर मैं
पत्ती को उसी के पानी से
सोचती हूँ कहीं
स्त्रीलिंग होने मात्र से
उसका भाग्य स्त्रियों से
जुड़ तो नहीं जाता
नहीं चाहती हूँ उसे
उसी की किस्मत पे छोड़ना
कूड़े के ढेर पर पड़े पड़े खत्म होना
उठाती हूँ बड़े जतन से उसे
ले जाती हूँ अपने सबसे प्यारे
और दुर्बल पौधे के पास
मिलाती हूँ उसकी
सख्त मिटटी में इसे
खिल उठती है वो मिटटी
भुर भुरी हो उठती है
आश्वस्त हूँ अब
जी उठेगा मेरा पौधा
जाते जाते कोई
जीवन दान जो दे गया है उसे