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भस्मासुर / प्रतिभा सक्सेना

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सुनते थे कभी
 किस्से-कहानियों में ,
 प्रत्यक्ष हो गया आज -
देख लो चारों ओर
त्राहि-त्राहि ,
आग के गोले ,बारूद का धुआँ
और मृत्यु का भयावह नृत्य !
इन्सान को भेड़-बकरियां बनाने के लिये,
हाँक कर अपने ढंग से चलाने के लिये ,
घूम रहा है भस्मासुर !


 भयावह यंत्रणाओं से पगलाई स्त्रियाँ
और लगातार नोचा जाता हताश बचपन ,
 विक्षिप्त हो उड़ा रहे चीथड़े ,
 विस्फोट कर अपना ही तन
 कि एक बार ही मुक्ति मिल जाये
यों तड़प-तड़प मरने से !
 *
 किसकी निर्मिति ?
उत्तरदायी कौन ?
 
इन्सानी ख़ून का स्वाद
लगाया किसने उसकी ज़ुबान पर ।
किसने ? क्यों ?


ऊपर से मुग़ालता पाले
बैठे रहे चैन से
कि कृतज्ञ रहेगा हमारा ,
 दाता का अनुगामी बना  ?

पर वह जान चुका है अपनी सामर्थ्य,
तुम्हारी सीमायें ,
और अब दाँव आज़माया है तुम्हीं पर
 क्योंकि वही स्वाद है तुम्हारे ख़ून में भी !


 स्वार्थी कृपा,
और कुपात्र का दान
बना जो अभिशाप ,
 सारी धरती के लिये !
  कैसे निराकरण ?
 कहाँ समाधान?


  प्रकृति का नियम -
जो बोया है काटोगे ,
 दिया है पाओगे ,
 किया है सामने आयेगा ।
तुम्हारा ही रचा
यह भस्मासुर
तुल गया तुम्हारे सर्वनाश के लिये !


 भागोगे कहाँ
बच कर
 कहाँ -कहाँ भागोगे !
 पीछा कर रहा है निरंतर !
भस्मासुर ,
कितने रूप ,कितने नाम !
कहाँ है समाधान?


 यहां रेखायें सरल नहीं होतीं,
 घूम जाती हैं वर्तुलाकार
अनादि-अनन्त !
ऐकान्त कुछ नहीं , सब अनेकान्त
 निरंतर आन्दोलित ,आवर्तित ,घूर्णित
 नये-नये रूपाकार ढालती !


 घूमती रेखाओं में
नये वृत्त खींचो ,
शुरू होने दो एक नया नाच ,
ऐसा
कि उसका हाथ और उसी का सिर !
और भस्मीभूत हो जाये ,
 भस्मासुर !