भावना विकलांग होकर जी रही है
और कुछ हमदर्द हैं बैसाखियाँ ले कर खड़े हैं
जी रही दम साध कर बेबस शरीफ़ों कीजमात
औ’ सरे-बाज़ार वे गुस्ताख़ियाँ लेकर खड़े हैं
मान बैठे हैं पराए पीर को अपना सगा हम
आ, पराए दर्द आ, हम राखियाँ लेकर खड़े हैं
हर तरफ़ क़ानून चौकस है, व्यवस्था जागती है
पर सुखी वे लोग, जो चालाकियाँ लेकर खड़े हैं
छंदहीना बस्तियों के शोर से पर अप्रभावित
हम कबीरा-से खड़े हैं साखियाँ लेकर खड़े हैं