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भाषा (एक) / रवीन्द्र भारती

पलटने से नहीं पलट रहे हैं पृष्ठ
पाथर हो गई है काया
घाट की सीढ़ियों के पास खुली पड़ी है किताब ।

भाषा को कन्धा देनेवाले विमर्श कर रहे हैं
कि क्या किया जाए, दहा दिया जाए
या दाह-संस्कार कर यहाँ बना दी जाए समाधि ।

विमर्श में चूंकि नामचीन लोग हैं
कई बोलियों की शवयात्रा में शरीक होने का उन्हें अनुभव है
स्वाभाविक है कि उन्होंने विमर्श को गम्भीरता से लिया
और उसे सेमिनार का रूप दे दिया ।

ऐसा संयोग कभी-कभी होता है कि
जिसका कोई वारिस न हो उसके लिए हो ऐसा आयोजन।
छूटे चले आए शहर भर के ज्ञानी, गुनिया ।

धकियाकर आगे जानेवालों से पिछली कतार में बैठी
संस्कृत ने इशारतन कहा
भाषा ने जीवन में जो कुछ अर्जित किया
उसे सिरजकर रखा है इस पत्थर की किताब में
यह उसकी मुखाकृति नहीं
सृष्टि की पहली सन्दूक भी है
बिना खोले सन्दूक, भला कोई कैसे कह सकता है
क्या है भाषा का अवदान !

पता नहीं उसकी आवाज़ मंचासीनों तक पहुँची कि नहीं
कि इस बीच आ गए
कई नामचीनों की जगह कई नामचीन
कुछ नामचीन बैठे रहे हैं बाहर
अपनी बारी के इन्तज़ार में
भाषा के शव के पास ।