भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भिक्षां देहि / प्रतिभा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(माँ भारती अपने पुत्रों से भिक्षा माँग रही है- समय का फेर!)
रीत रहा शब्द कोश,
छीजता भंडार.
बाधित स्वर, विकल बोल,
जीर्ण वस्त्र तार-तार .
भास्वरता धुंध घिरी
दुर्बल पुकार,
नमित नयन आर्द्र विकल,
याचिता हो द्वार-
'देहि भिक्षां,
पुत्र, भिक्षां देहि!'

डूब रहा काल के प्रवाह में अनंत कोश,
शब्दों के साथ लुप्त होते
सामर्थ्य-बोध.
ज्ञान-अभिज्ञान युक्तिहीन,
अव्यक्त हो विलीन.
देखती अनिष्ट, वाङ्मयी शब्द-हीन
दारुण व्यथा पुकार -
'भिक्षां देहि, पुत्र!
देहि में भिक्षां'

अतुल सामर्थ्य विगत
शेष बस ह्रास!
तेजस्विता की आग,
जमी हुई राख
गौरव और गरिमा उपहास
बीत रही जननी तुम्हारी,
मैं भारती .
खड़ी यहाँ व्याकुल हताश
बार-बार कर पुकार -
'देहि भिक्षां, पुत्र,
क्षां देहि'!

शब्द-कोश संचित ये
सदियों ने ढाले,
ऐसे न झिड़को,
व्यवहार से निकालो.
काल का प्रवाह निगल जाएगा,
अस्मिता के व्यंजक अपार अर्थ, भाव दीप्त,
आदि से समाज बिंब
जिसमें सँवारे,
मान-मूल्य सारे सँजोये ये महाअर्घ,
सिरधर, स्वीकारो!
रहे अक्षुण्ण कोश, भाष् हो अशेष
देवि भारती पुकारे
'भिक्षां देहि!
पुत्र, देहि भिक्षां!'

फैलाये झोली, कोटि पुत्रों की माता,
देह दुर्बल, मलीन,
भारती निहार रही
बार-बार करुण टेर -
'देहि भिक्षां,
पुत्र, भिक्षां देहि!'