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भिगाए जा, रे... / हरिवंशराय बच्‍चन

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भीग चुकी अब जब सारी,

जितना चाह भिगाए जा, रे


आँखों में तस्‍वीर कि सारी

सूखी-सूखी साफ़, अदागी,

पड़नी थी दो छींट छटटकर

मैं तेरी छाया से भागी!


बचती तो कड़ हठ, कुंठा की
अभिमानी गठरी बन जाती;

भाग रहा था तन, मन कहता

जाता था, पिछुआए जा, रे!

भीग चुकी अब जब सब सारी,

जितना चाह भिगाए जा, रे!


सब रंगों का मेल कि मेरी

उजली-उजली सारी काली

और नहीं गुन ज्ञात कि जिससे

काली को कर दूँ उजियाली;

डर के घर में लापरवाही,
निर्भयता का मोल बड़ा है;

अब जो तेरे मन को भाए

तू वह रंग चढ़ाए जा, रे!

भीग चुकी अब जब सब सारी,

जितना चाह भिगाए जा, रे!


कठिन कहाँ था गीला करना,

रँग देना इस बसन, बदन को,

मैं तो तब जानूँ रस-रंजित

कर दे जब को मेरे मन को,

तेरी पिचकारी में वह रंग,
वह गुलाल तेरी झोली में,

हो तो तू घर, आँगन, भीतर,

बाहर फाग मचाए जा, रे!

भीग चुकी अब जब सब सारी,

जितना चाह भिगाए जा, रे!


मेरे हाथ नहीं पिचकारी

और न मेरे काँधे झोरी,

और न मुझमें हैबल, साहस,

तेरे साथ करूँ बरजोरी,

क्‍या तेरी गलियों में होली
एक तरफ़ी खेली जाती है?

आकर मेरी आलिंगन में

मेरे रँग रंगाए जा, रे?

भीग चुकी अब जब सब सारी,

जितना चाह भिगाए जा, रे!