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भिनभिनाने से तेरे कौन सँभल जाता है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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भिनभिनाने से तेरे कौन सँभल जाता है।
अब तो मक्खी यहाँ कोई भी निगल जाता है।

यूँ लगातार निगाहों से तू लेज़र न चला,
आग ज़्यादा हो तो पत्थर भी पिघल जाता है।

जिद पे अड़ जाए तो दुनिया भी पड़े कम, वरना,
दिल तो बच्चा है खिलौनों से बहल जाता है।

तुझ से नज़रें तो मिला लूँ पर तेरा गाल मुआँ,
लाल अख़बार में फ़ौरन ही बदल जाता है।

खाद, मिट्टी व नमी चाहिए गुलशन के लिए,
पेड़ काँटों का तो सहरा में भी पल जाता है।