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भीगता हुआ चौक / सरिता महाबलेश्वर सैल

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उस बारिश में
चौक भीग रहा था
साथ-साथ नेता की प्रतिमा भी
धूल से सनी हुई
पहचान खो चूकी थी
लौट आयी थी वह
चौक फिर से जीवित हो उठा
शहर की छाती पर
अब अकड़ रहा था।

आज सड़क रुक गयी थी
बारिश में
कोई कंधे पर तो कोई
ह्रदय में बोझ लिए
सड़क से गुजर रहा था।

उस पर अब पानी की
बूँदें उछल रही थी
ऐसा आभासित होता
राहगीरों को दरकिनार करके
वह आराम फरमा रही थी
कहीं दूर खड़ी थी
एक साइकिल
बारिश की बूँदों में
सराबोर हो रही थी
मालिक का बोझ खींचते-खींचते बूढ़ी हुई थी
बूँदों के साथ दो पल जी रही थी

कोने में बैठा था एक भिखारी
उसकी नज़र कटोरे से हटकर
बारिश की बूँदों पर टिक गयी थी
हर बूँद को वह गिन रहा था
सिक्के की भांति

सड़क किनारे लगी
मोची की दुकान में
बारिश की बूँदें उछलकर
पुराने मैले जूतों पर
बैठ रही थी
फटे पुराने जूतों
से आनेवाली दुर्गंध
बारिश की सौंधी-सौंधी ख़ुशबू में
बदल रही थी
इसी हर्ष में मोची के हाथ चल रहे थे
तेजी से

गर्मी की चिलचिलाहट से दर्जी के पैर तथा यंत्र
रहे थे उमस
आयी थी गति उनमें
सिले कपड़े मालिक के इंतज़ार में थे
वो भी बारिश में आतुर हो रहे थे
भीगने के लिए

वहीं सड़क किनारे बूढ़ा पेड़ तना था
धूल से सना हुआ
बूँदों संग हरा रंग चढ़ाकर
हंस रहा था

चौक, सड़क, पेड़, साइकिल
दर्जी, मोची, भिखारी
सब झूम रहे थे
फल फूल सब्जी बेचने वाले
उनकी ललाट पर चिंता की रेखाएँ
उमड़ रही थीं
उनकी थैली आज की
बारिश में भीग जो रही थी।