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भीड़ / मुइसेर येनिया

ख़ामोशी के भीतर आवाज़ें
अन्धकार के भीतर प्रतिबिम्ब
मैं तलाशती हूँ अपने लिए

मैं पूछती हूँ कविता से
वे प्रश्न जो मुझे कभी पता न थे
मेरे फ़ेनिल हृदय में
उठते हर एक बुलबुले को
एक नाम देती हूँ

जब दुःख
घूँसों की तरह
प्रहार करता है मेरे सीने पर
मैं दुःख के बारे में बोलती हूँ

इस दुनियाँ से एक उम्मीद रखनी चाहिए थी
मैदान के बीच
जहाँ धरती एक आईना है
मैं देखती हूँ खुद को घुटनों पर झुके हुए
आकाश के इस फ़ासले से
ऊबी हुई
आवाज़ों को सुनते हुए
मानो लोग धरती पर उतर रहे हों

प्रेम का यह पहलू गरीबी है
बाहर ठण्ड है

अकेलेपन की अजनबियत से भरे हुए
लोगों के बीच
मैं खुद को तलाशती हूँ

एक कसी हुई रस्सी
जहाँ --
मैं खुद को
खुला रखती हूँ

एक भीड़ बिखर रही है
मेरी स्म्रतियों से
एक भीड़
मेरे ख़्वाबों से ।