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भीतर तक छिलता रहा / सांवर दइया

न जाने कितनी उमंगें लेकर
पहरों बतियाने की सोच
आया था मैं द्वार तिहारे

मिले, मुस्कुरायें, बैठे
पर बतियाये नहीं

जितने पल बीते
सब रीते
रीते-रीते वे पल
दे सके कोई हल ?

जब तक रहा
भीतर तक छिलता रहा
तुम्हारी चुप्पी के चाकू से !