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भीम का पुरुषार्थ जूझता है / मालती शर्मा

उस ओर
पूरब की धूमैली-मटमैली पहाड़ियों में
पीछे से
रोशनदान में होकर
वह मेरे कमरे में कूद आया
और इसके पहले कि सँभलूँ-सँभलूँ
उसने मुझे बिस्तर से उठा कर
खड़ा कर दिया
अपने हाथों की लाल-लाल डोरियाँ
उसने डाल दीं मेरी नाक में
और यों मुझे नाथ कर
सब ओर खींचने लगा
कमरे में नर्म बिस्तर फूलदान,
रेडियो ग्राम में सुकून पाता
अलसाया बिखरा व्यक्तित्व
सिमटा, सायकल की सीटों से चिपका
फिर किसी कुर्सी पर
अनमना-सा रख गया
ऊपर से ठुक गई
रोटियों की कीलें।
भीम का पुरुषार्थ जूझता है
पसरी हुई हनुमान की पूँछ से
हर दिन।