भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भुगत रहा हूँ ख़ुद अपने किए का ख़ामयाज़ा / शाकिर खलीक

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:40, 29 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शाकिर खलीक |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> भुग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भुगत रहा हूँ ख़ुद अपने किए का ख़ामयाज़ा
टपक रहा है जो आँखों से ये लहू ताज़ा

किसी की याद के साए को हम-सफ़र समझा
लगा सको तो लगा तो जुनूँ का अंदाज़ा

किसे मजाल कि अब मेरे दिल में घर कर ले
है गरचे अब भी खुला अपने दिल का दरवाज़ा

निगार-ए-वक़्त ने हर-सू कमंद डाली है
बिखर न जाए कहीं अंजुमन का शीराज़ा

ख़ुदा गवाह है उन को भी दे रहा हूँ दुआ
जो कसते रहते हैं ‘शाकिर’ पे रोज़ आवाज़ा