भूख, प्यास है, नंगे बदन, रहनुमा भी बदचलन
और फिर भी चुप रहे अख़बार खानाब्दोशियों के.
कह रहे हैं लोग, इस कान में कुछ उस कान में कुछ
हाय! बनते मीना-ए-बाज़ार कानाफूसियों के.
धर्म, नीतियों के राज लद गये वे दिन सही
आजकल तो गर्म हैं व्यापार सत्ताधीशियों के.
वायदों की रोटियाँ सिक जाएँगीं, इस आस में
बेशरम से देखते हर बार 'किस्से कुर्सियों के'।
सावधानी स्वाभिमान के ही वास्ते हो 'कमल'
बढ़ रहे हैं दायरे खूँखार-से परदेशियों के.