भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भूत / रफ़ीक सूरज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहले शाम होते ही गाँव की हदों से बाहर
जाने में डर लगता था
वहाँ भूत मण्डराते हैं ऐसा लगता था!

अब गाँव के बाहर फैले बंजर में
घरों, कारख़ानों में राह बनाते
रात-बिरात भी बिना डरे घूमता हूँ..

फिर क्या यह कहा जाए कि भूत कम हो गए हैं
या फिर भूतों की आदत पड़ गई है

मराठी से हिन्दी में अनुवाद : भारतभूषण तिवारी