Last modified on 15 जुलाई 2010, at 17:02

भूलने का रिवाज़ / मनोज श्रीवास्तव

Dr. Manoj Srivastav (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:02, 15 जुलाई 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

भूलने का रिवाज़

भूलने का रिवाज़
काल की तेज रफ्तार को
पछाड़कर बहुत आगे निकल गया है

फैक्ट्रियों के बलगम
कोठियों की खखार
आफिसों की मूत
और चिमनियों के मल
से बने भृगु के नीचे दब-पिचकर
सोंधी मिट्टी और चितकबरे पत्थर
गायब हो चुके हैं
हमारे सहज एहसासों से

पुरातात्त्विक स्मृतिशालाओं तक में
खलिहानों से आने वाली
गंवार हवाएं,
और पनघटों से उठने वाली
पनिहारिनों की किलकाहट
लुप्तप्राय हो चुकी है

भूलने की ज़द्दोज़हद में
कौमार्य देहाती आब्सेशन बन चुका है,
मर्दानी हेयर स्टाइल वाली लड़कियां
जूड़ों और चोटियों को
मोहनजोदड़ो की औरतों तक ही
सीमित रखना चाहती हैं,
सेक्स को नितम्बस्थ न मानकर
होठों पर अवस्थित रखती हैं.