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भूले बिसरे दर्द जगा कर बीत गई / सुरेश चन्द्र शौक़

भूले बिसरे दर्द जगा कर बीत गई सावन की बरखा
दिल में सौ तूफ़ान उठा कर बीत गई सावन की बरखा

दीवारो —दर को सुलगा कर बीत गई सावन की बरखा
जज़्बों में हलचल— सी मचा कर बीत गई सावन की बरखा

कितने फूल खिले ज़ख़्मों के,कितने दीप जले अश्कों के
कितनी यादों को उकसा कर बीत गई सावन की बरखा

सोज़,तड़प, ग़म , आँसू ,आहें ,टीसें ,ख़ामोशी, तन्हाई
हिज्र के क्या—क्या रंग दिखा कर बीत गई सावन की बरखा

रिम—झिम,रिम—झिम बूँदे थीं या सुर्ख दहकते अंगारे थे
दिल के नगर में आग लगा कर बीत गई सावन की बरखा

उनसे मिलन की आस की शबनम साथ लिये आई थी ,लेकिन
यास के शोलों को भड़का कर बीत गई सावन की बरखा

हिज्र की रातें काटने वालों से यह जाकर पूछे कोई
क्या—क्या क़हर दिलों पर ढा कर बीत गई सावन की बरखा

ये आँखों की ज़ालिम बरखा आ कर जाने कब बीतेगी
‘शौक़’! सुना है कब की आ कर बीत गई सावन की बरखा.

सोज़=जलन; हिज्र=वियोग; यास=निराशा